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कविता

बसंत के परखच्चे

श्यामसुंदर दुबे


परखच्चे उड़ते
बसंत के
चाल-चलन ऋतुओं के बदले।

एक दूसरे में
घुस बैठे
इनके रंग-ओ-रोगन,
लोकतंत्र के
बदरंग होते
बचे घिनौने से स्लोगन

श्वासों में
विषबुझी सुगंधें
फूलों के इतने घोटाले
            कलियों के घपले।

आवाजों की
धकमपेल में
काँटों की अपनी मनमानी,
तितली के
पंखों के ऊपर,
धूपों ने तलवारें तानी

रेड लाईट एरिया चौपट
रति सँभाले रेप
कामदेव ने
            खोले चकले।
 


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